पच्चीसवाँ सूक्त

 

प्रकाशके अधीश्वर व देवत्वके निर्माताके प्रति

 

    [ ऋषि अग्निकी इस रूपमें स्तुति करता है कि वह एक क्रान्तदर्शी संकल्प है जिसकी सम्पूर्ण सत्ता ही है प्रकाश और सत्य, दिव्यताके सारतत्त्व का मुक्तहस्तसे दान । वह अग्निदेव एक पुत्र है जो द्रष्टाओंके विचारके समक्ष उत्पन्न होता है और वह मनुष्यमें उत्पन्न देवत्व (देव) के रूपमें अपने-आपको हमें दे देता है । वह देवत्व (देव) हमारे ही कार्योंका पुत्र है जो दिव्य सत्य और दिव्य शक्तिसे समृद्ध है, वह संग्राम और यात्राके विजयशील अश्वके रूपमें अपने-आपको हमें प्रदान कर देता है । उस द्रष्टा-संकल्पकी सम्पूर्ण गति है ऊपरकी ओर, अतिचेतनकी विशालता और प्रकाश-की ओर । उसकी वाणी मानो उन द्युलोकोंका गर्जनमय संगीत हैं । वह अपनी पूर्ण क्रियासे हमें अवश्य ही अन्धकार और सीमाके घेरेसे पार ले जायगा । ]

अच्छा वो अग्निभवसे देवं गासि स नो वसु: ।

रासत् पुत्र ऋषूणामृतावा पर्षति द्विषः ।।

 

(ध: अवसे) अपने संवर्धनके लिये (अग्निम् अच्छ) उस संकल्पशक्तिके प्रति, (देवम् [अच्छ]) उस देवके प्रति (गासि) गीत गाओ, क्योंकि (स नः वसु:) वह हमारे सारतत्त्वका स्वामी है और (रासत्) खुले हाथसे दान देता हैं, (ऋषूणां पुत्र:) ज्ञानके अन्वेषकोंका पुत्र है, (ऋतावा) सत्यका रक्षक है, (द्विष: पर्षति) हमारे विध्वंसकोंकी बाढ़से, हमें पार उतारता है ।

स हि सत्यो यं पूर्वे चिद् देवासश्चिद् यमीधिरे ।

होतारं मन्द्रजिह्वमित् सुदीतिभिर्विभावसुम् ।।

 

(स हिं सत्य:) वह सत्यस्वरूप है, अपनी सत्तामें सच्चा है (यं) जिसे (पूर्वे चिद्) पुरातन द्रष्टाओंने और (यं) जिसे (देवास: चिद्) देवोंने भी (सुदीतिभि:) पूर्ण प्रभाओंके द्वारा (विभावसुमू ईधिरे) उसके प्रकाशके विशाल सारतत्त्वके रूपमें प्रदीप्त किया, (मन्द्रजिहम्) अपने परम आनन्द-

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की किहवासे युक्त, (होतारम्) हविके वाहक उस पुरोहितको  [ उन्होंने प्रदीप्त किया ] ।

स नो धीती वरिष्ठया श्रेष्ठया च सुमत्या ।

अग्ने रायों दिदीहि नः सुवृक्तिभिर्वरेण्य ।।

 

(वरेण्य अग्ने) हे अत्यधिक वरणीय ज्वाला ! इस प्रकार (नः श्रेष्ठया धीती) हमारे श्रेष्ठ चिंतनसे, (सुमत्या) हमारी अत्यधिक उज्ज्वल, पूर्णता- प्राप्त मतिसे, (सुवृक्तिमि:) उस मतिके द्वारा समस्त बुराईके नितान्त उच्छेदनसे (नः राय: दिदीहि) तेरा प्रकाश हमें आनन्द दे ।

अग्निर्देवेषु राजत्यग्निर्मर्तेष्वाविशन् ।

अग्निर्नो हव्यवाहनोऽग्निं धीभि: सपर्यत ।।

 

(अग्नि:) वह दिव्य संकल्प ही (देवेषु राजति) देवोंमें चमकता है । (अग्नि:) वह दिव्य संकल्प ही (मर्तेषु आविशन्) मर्त्योंमें अपने प्रकाशसे प्रवेश करता है । (अग्नि:) वह संकल्प ही (न: हव्य-वाहन:) हमारी हविका वाहक है । (अग्निम्) उस संकल्पाग्निको (धीमि:) अपने सब विचारोंमें (सपर्यत) खोजों और उसकी उपासना करो ।

अग्निस्तुविश्रवस्तमं तुविब्रह्माणमुत्तमम् ।

अतूर्त श्रावयत्पतिं पुत्रं ददाति दाशुषे ।।

 

(अग्नि:) संकल्पाग्नि (दाशुषे) हविर्दाताको (पुत्रं ददाति) पुत्र देता है, उसके कार्योंसे उत्पन्न फलरूपी पुत्र1 प्रदान करता है जो (तुवि-श्रवस्तमम्) अनेक अन्त:प्रेरणाओंसे परिपूर्ण है, (तुविब्रह्माणम्) आत्माकी अनेक अन्त-ध्वनियोंसे भरपूर है, (उत्तमम्) सर्वोच्च है, (अतूर्तं) जिसपर आक्रमण नहीं किया जा सकता, और जो (श्रवयत्-पतिम्) पदार्थोंका ऐसा स्वामी है जो ज्ञानके प्रति हमारे कान खोलता है ।

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1. 'यज्ञका पुत्र' वेदमें एक सतत रूपक है । यहाँ स्वयं अग्निदेव ही

   अपने-आपको मनुष्यको पुत्रके रूपमें दे देता है, ऐसे पुत्रके रूपमें

   जो पिताका उद्धार करता है । साथ ही अग्नि युद्धका अश्व एवं

   यात्राका घोड़ा, श्वेत अश्व, रहस्यमय द्रुतगतिशाली दधिक्रावन् भी

   है जो हमें युद्धमेंसे पार कर हमारी यात्राके लक्ष्य तक ले जाता है ।

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प्रकाशके अधीश्वर व देवत्वके निर्माताके प्रति

 

अग्निर्वदाति सत्पतिं सासाह यो युधा नृभि: ।

अग्निरत्यं रधुष्यदं जेतारमपराजितम् ।।

 

निश्चयसे (अग्नि:) यह संकल्पाग्नि ही हमें (सत्पतिं ददाति) सत्ताओं-के स्वामीको दानमें देता है, (य:) जो स्वामी (युधा) युद्धोंमें (नृभि:) शक्तिकी आत्माओंसे (ससाह) विजयी होता है । (अग्नि:) संकल्पाग्नि हमें (अत्यं [ ददाति ] ) युद्धका अश्व देता है जो (रघुष्यदं) अत्यन्त सरपट दौडता है, (जेतारम्) सदा विजय प्राप्त करता है और (अपराजितम्) कभी जीता नहीं जा सकता ।

यद् वाहिष्ठं तदग्नये बृहदर्च विभावसो ।

महिषीव त्वद् रयिस्त्वद् वाजा उदीरते ।।

 

(यद् वाहिष्ठं) जो हमारे अन्दर वहन करनेमें सबसे अधिक शक्ति-शाली है (तद्) उसे हम (अग्नये) संकल्पाग्निके लिये देते हैं । (विभावसो) प्रकाश ही जिसका विशाल सारतत्त्व है हे ऐसे अग्निदेव ! तू (बृहत् अर्च) विशाल सत्ताके गीत गा । (त्वद् रयि:) तेरी समृद्धि (महिषी इव) मानों स्वयं भगवती1की ही विशालता है, (त्वद् वाजा: उत् ईरते) तेरी ऐश्वर्य-परिपूर्णताका तीव्र वेग ऊपरकी ओर जाता है ।

तव द्युमन्तो अचयो ग्रावेवोच्चते वृहत् ।

उतो ते तन्यतुर्यथा स्वानो अर्त त्मना दिव: ।।

 

(तव अर्चय:) तेरी ज्वालामयी दीप्तियां ( द्युमन्त:) देदीप्यमान हैं; (ग्रावा इव) आनन्दरस सोमको पीसनेवाले पत्थरकी ध्वनिकी तरह (बृहत् उच्यते) एक विशाल वाणी तुझसे उठ रही है । (ते स्वान:) तेरा महान् शब्द (त्मना) अपने-आप ही इस प्रकार (अर्त) ऊपर उठ रहा है (यथा) जिस प्रकार (दिव) द्युलोकसे (तन्यतु:) बिजलीकी गड़गड़ाहटका गीत ।

एवां अग्निं वसूयव: सहसानं ववन्दिम ।

स नो विश्वा अति द्विष: पर्षैन्नावेव सुक्रतु: ।।

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1. अदिति, विशाल माता ।

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(एव) इस प्रकार (वसूयव:) वसुको-सारतत्त्वको चाहते हुए हम (सहसानम्) जीतनेमें शक्तिशाली (अग्निम्) दिव्य संकल्पाग्निकी (ववन्दिम) वन्दना करते हैं । (सुक्रतु: स) अपने क्रिया-कलापकी पूरी शक्तिसे सम्पन्न वह अग्नि (न:) हमें (विश्वा द्विषः) उन समस्त शक्तियोंसे जो हमें नष्ट करना चाहती हैं (नावा इव) समुद्रमें नौकाकी तरह (अति पर्षत) पार ले जाय ।

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